Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 11

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित: |
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान् || 11||

अथ-यदि; एतत्-यह; अपि-भी; अशक्त:-असमर्थ; असि-तुम हो; कर्तुम् कार्य करना; मत्-मेरे प्रति; योगम्-मेरे प्रति समर्पण; आश्रित:-निर्भर; सर्व-कर्म-समस्त कर्मो के; फल-त्यागम्-फल का; त्याग; ततः-तब; कुरु-करो; यत-आत्मवान्-आत्मा में स्थित।

Translation

BG 12.11: यदि तुम भक्तियुक्त होकर मेरी सेवा के लिए कार्य करने में असमर्थ हो तब अपने सभी कर्मों के फलों का त्याग करो और आत्म स्थित हो जाओ।

Commentary

इस अध्याय के 8वें श्लोक का आरम्भ करने के साथ श्रीकृष्ण ने अर्जुन के कल्याणार्थ तीन मार्ग बताए थे। तीसरे मार्ग में उन्होंने अर्जुन को उनकी सेवार्थ कार्य करने को कहा लेकिन इस प्रयोजन हेतु भी शुद्धता और निश्चयात्मक बुद्धि का होना आवश्यक है। जो लोग भगवान के साथ अपने संबंध के बारे में नहीं जानते और जिन्होनें भगवत्प्राप्ति को अपने जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया है उनके लिए भगवान के सुख के लिए कार्य करना असंभव होता है।

इसलिए श्रीकृष्ण अब जीवात्मा के कल्याणार्थ चौथा मार्ग बताते हैं-"अर्जुन तुम पहले की भांति अपना कार्य करते रहो लेकिन उनके कर्म-फलों से विरक्त रहो।" ऐसी विरक्ति हमारे अंतःकरण को तमस् और रजस् गुणों से रहित करेगी और सत्त्वगुण की ओर ले जाएगी। इस प्रकार कर्म-फलों का त्याग करने का प्रयास हमारे मन से सांसारिकता को हटाने और बुद्धि को दृढ़ करने में सहायता करेगा। तब हमारी बुद्धि शीघ्रता से शुद्ध होगी और अलौकिक ज्ञान को समझने में समर्थ होगी और हम साधना के उच्च स्तर की ओर अग्रसर होने में समर्थ होंगे।

Swami Mukundananda

12. भक्तियोग

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